कल "जाने तू ....या जाने ना" देखली। ठीक ठाक हैं, एक ही बार देखने लायक.... बच्चों को पसंद आएगी.......मेरा मतलब, कॉलेज के छात्रों को......
फ़िल्म देखते समय ऐसा लगा की जैसे अब हम बूढे हो रहे हैं........मैं, नयनिश, श्रीकुमार सब को इस बात का एहसास हुआ. कोई तो कारण होगा , की सिर्फ़ लड़कियों को ही ये बचकानी फ़िल्म अच्छी लगी। जो भी हो, एक बात साफ़ हो गई की अब बचपना निकल गया...........
खैर, २५ की उम्र मैं ऐसा लगना काफ़ी अजीब लग रहा हैं, मम्मी तो शादी के बात करने लगी......और बाकियों का बर्ताव ध्यान मैं आ रहा हैं.........आस पास के लोग, एक इज्ज़त , एक आपेक्षा से बात करते हैं.....जैसे अब हम जिम्मेदारी दिए जाने के लायक हैं...............अब हमारी राय को ज्यादा तब्बजू होती हैं......अरे कल तक क्या बेवकूफ थे??
पिछले सप्ताह मुझसे और आकाश से एक परिचित ऐसे राय माँगा राए थे जैसे हम लोग कही के महानुभावी हैं......उनकी बातों से ऐसा लगा, वो हमें ऐक अलग युग से समझ रहे थे......
हाल मैं ही कहीं पड़ा था, हमारी उमर के हर पड़ाव के बाद हम मैं कुछ बदलाव आते हैं.....मानसिक तौर पे हम इन पडावों के बाद ही विकसित हो सकते हैं.....पर मुझे ऐसा नही लगता...जीवन के हमारे अनुभव, उनसे हमने जो सीखा, और किस तरह उन्हें लागू किया.....इन बातों से ही हमारा मानसिक तौर पे विकास हो सकता हैं......
खैर, देखा जाए तो ये हर इंसान पर निर्भर हैं.....कौन किस तरह से अपने आप को बढ़ता देखना चाहते हैं.......पर कुछ लोग इसे कामचोरी और ज़िम्मेदारी से बचने का जरीया बना लेते हैं....जो की अच्छी बात नही है...... मेरे हिसाब से......